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बोधिवृक्ष

ईसा की सातवीं शताब्दी में चीनी यात्री ह्यू-एन-त्सांग भारत आया। मंतव्य था बुद्ध की भूमि भारत की यात्रा करना, ताकि उन हवाओं की गंध ली जा सके जिनमें उसके आराध्य ने सांसें ली थी। बुद्ध की शिक्षाओं और तत्वज्ञान को जिन पन्नों में समेटा गया था, उन्हें जानने के लिए उसने घोर श्रम किया। निर्जन रेगिस्तान, घने जंगलों, दुर्गम पहाड़ों और अनेक हिंसक पशुओं का सामना करते हुए हजारों मील की यात्रा की। इस लंबे प्रवास में बुद्ध की करुणा ही उसका संबल थी। भारत आने पर बौद्धक्षेत्रों के दर्शन करते वह बोध गया पहुंचा। यहां बोधिवृक्ष के दर्शन कर ह्यू-एन-त्सांग को लगा जैसे निर्वाण प्राप्त हो गया। जिसकी छाया में गौतम को बुद्धत्व प्राप्त हुआ था। वह बोधिवृक्ष भी वहां खड़ा लहलहा रहा था। यात्रा वर्णन में उसने लिखा है ‘इस बोधगया वृक्ष के पत्ते पतझड़ और ग्रीष्म में भी नहीं झड़ते। केवल बुद्ध के निर्वाण प्राप्ति के दिन ही पत्ते झड़ते हैं, परंतु दूसरे दिन उसमें नई कोंपलें फूट पड़ती हैं। वृक्ष फिर लहलहाने लगता है। इस मंगल पर्व पर दूर-दूर से आए हुए राजा-महाराजा बोधिवृक्ष की छाया में एकत्र होते हैं। वे लोग बोधिवृक्ष का दूध से अभिषेक करते हैं और पुष्पांजलि अर्पित करते हैं। दीपक जलाते हैं तथा उत्सव मनाते हैं। वापस जाते समय यात्री उसके कुछ पत्ते अपने साथ ले जाते हैं।’

बोधिवृक्ष आज भी है। हर साल उसमें लाल कोपलें चमकती और पत्तों की सरसराहट गूंजती है। निरंजना नदी के पाट को स्पर्श करती हुई हवाएं आज भी बोधिवृक्ष की गोद में पहुंचकर इठलाती हैं। बोधगया का मंदिर इसी वृक्ष के पास बना हुआ है। बोधगया का प्राचीन नाम उरुवेला था। यहां पहुंचकर इस वृक्ष के नीचे ध्यान करने से पहले गौतम ने उग्र तप किया था। बुद्ध ने अपने सुंदर और रूपवान शरीर को कंकाल बना लिया था।
बुद्धत्व प्राप्त होने के बाद गौतम उठ कर निरंजना नदी के तट पर गए। स्नान किया और जिस तरह गए थे, उसी तरह जैसे तैसे वापस आकर अश्वत्थ वृक्ष के नीचे बैठ गए। उनका मन स्थिर था, परंतु शरीर पहले से भी अधिक शिथिल हो गया था। तभी एक घटना घटी। वहां के गोप राजा की कन्या सुजाता उधर से जा रही थी। उसने गौतम को देखा। वह तुरंत घर वापस पहुंची और खीर तैयार करके लाई। श्रद्धा से उसने गौतम को खीर खिलाई। खीर खाकर गौतम तृप्त हो गए। यह घटना भी बोधिवृक्ष के नीचे घटी थी। बुद्धत्व से पहले उन्हें इसी बोधिवृक्ष से आवश्यक बल प्राप्त हुआ। जिस वृक्ष के नीचे बुद्ध बैठे थे तत्वदर्शी कहते हैं कि वह वृक्ष भी सम्बोधि से स्पंदित हो गया। बुद्ध का बुद्धत्‍व को प्राप्‍त होना, अलौकिक है असाधारण घटना है। अगर आकाश में बिजली चमकती है और वृक्ष सूख जाता है तो कोई कारण नहीं कि बुद्ध में चेतना की बिजली चमके तो वह वृक्ष खास अर्थों में जीवंत न हो जाए।

उस बोधिवृक्ष के नीचे बरसों तक बुद्ध मौजूद रहे। उनके पैर के पूरे निशान वहां रखे गए हैं। जब वह ध्‍यान करते-करते थक जाते तो उस वृक्ष के पास घूमने लगते। बुद्ध किसी के साथ इतने ज्‍यादा नहीं रहे जितने उस वृक्ष के साथ रहे, उस वृक्ष से ज्‍यादा बुद्ध के साथ कोई नहीं रहा। बुद्ध उसके नीचे सोए भी है। उसके नीचे बैठे हैं, उठे हैं। बुद्ध इसके आस-पास चले है। बुद्ध ने उससे बातें की होंगी, बुद्ध उससे बोले भी होंगे। उस वृक्ष की पूरी जीवन उर्जाबुद्ध से आविष्ट है। जब अशोक ने अपने बेटे महेंद्र को लंका भेजा तो उसने पूछा कि मैं भेंट में क्‍या ले जाऊं? अशोक ने कहा कि एक ही भेंट हमारे पास है कि इस बोधि-वृक्ष की एक शाखा ले जाओ। उस शाखा को लंका में लगाया गया। उससे सारा लंका आंदोलित हुआ। लोग समझते है, महेंद्र ने लंका को बौद्ध बनाया। तत्वदर्शियों के हिसाब से यह गलत है। सही यह है कि महेंद्र ने नहीं, उस शाखा ने लंका को बौद्ध बनाया। ढाई हजार साल पुराना है बोधिवृक्ष। लेकिन उसके सौंदर्य में रत्ती भर कमी नहीं आई। उसके नीचे अब हजारों लोग छाया में बैठ सकते है। सौंदर्य और गहन हो गया होता है। जिस वृक्ष के नीचे बुद्ध को ज्ञान हुआ उसे बचाने की व्यवस्था हुई है। वह वृक्ष उस स्‍पंदन से स्‍पंदित है। और अगर कोई उस बोधिवृक्ष के पास शांत होकर बैठे तो अचानक अपूर्व शांति उतर आएगी चित्त में। क्‍योंकि बैठने वाला अकेला वह व्यक्ति ही शांत नहीं हो रहा है। उस वृक्ष ने एक अपरिसीम शांति जानी है।

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